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वाचिक एवं जनजातीय साहित्य केंद्र के विषय में

 

 

भारत अपनी भाषाओं की विविधता और बहुलता के कारण जाना जाता है। आज के समय में सात विभिन्न भाषा-परिवारों से संबंधित 1600 से अधिक भाषाएँ देश में बोली जाती हैं। देश का यही बहुभाषी-परिदृश्य सहिष्णुता और दूसरों के प्रति प्रेम का दर्शन प्रदान करता है। हमारी कुछ भाषाओं को लिखित रूप में प्रतिष्ठापित होने का सौभाग्य प्राप्त है। परंतु इनमें से अधिकांश भाषाएँ वाचिक रूप में संरक्षित और मौजूद हैं। हमारी वाचिक परम्पराएँ 3500 साल पुरानी हैं और उनका अस्तित्व आज भी है। देश में लिखित भाषा से कहीं अधिक अलिखित भाषाएँ हैं। ये भाषाएँ आदिवासियों और गैर-आदिवासियों द्वारा बोली जाती है। उनमें से कुछ विस्थापितों और हाशिये के समाज द्वारा बोली जाती हैं। कुछ दूसरी भाषाएँ दुर्गम द्वीपों, जंगलों, पहाड़ों और पर्वतों के निवासियों द्वारा बोली जाती हैं।

 

उन्नीसवीं सदी में, कुछ भाषाओं के लिए उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में, जब साहित्यिक-कृतियों का मुद्रण और प्रकाशन सुव्यवस्थित हुआ, उससे पहले भारत में साहित्य ज़्यादातर वाचिक रूप में ही विद्यमान था। यहाँ तक कि जब साहित्यिक कृतियाँ लिखी जाती थीं और पांडुलिपि के रूप में अगली पीढ़ियों को सौंपी जाती थीं, तब भी साहित्यिक कृतियों का सामान्य प्रसार वाचिक परिसंचरण पर ही निर्भर था। वाचिक विषयों में शास्त्रों से लेकर लोकगीत और नाटक तक शामिल होते हैं। यहाँ तक कि भारत में मुद्रण-माध्यम के स्थापित होने के बाद भी हमारी कुछ वाचिक परंपराएँ बची हुई हैं। उनमें महाकाव्य, नाटक, गीत, कहानियाँ, आख्यान, कहावतें और सूक्तियाँ शामिल हैं।

 

हमारा विपुल वाचिक साहित्य, संस्थागत सहयोग के न मिलने और पीढ़ियों तक उनका आंतरिक स्थानांतरण न हो पाने के कारण विस्मृति के चलते विलुप्त होने की कगार पर है। हाल ही में यह पाया गया कि सामाजिक-आर्थिक दबावों के कारण काफी मात्रा में लोकगीत और हमारा लोक साहित्य युवा पीढ़ी तक स्थानांतरित नहीं हो सका और इसी कारण उनके लुप्त हो जाने का खतरा है। भाषाओं के लिखित रूप में मौजूद न होने की स्थिति में इनके लुप्त होने का अंदेशा और अधिक बढ़ गया है। हालाँकि लेखन-प्रणाली और लिपियाँ हमारे लिए नई नहीं हैं, फिर भी बहुत- सी भाषाएँ अभी भी अलिखित हैं और इसलिए वे औपचारिक शिक्षा में शामिल नहीं हो सकीं और न ही वे भावी पीढ़ी के लिए संरक्षित रह सकीं। वे हमारे समाज, परिवेश और इतिहास के देशज एवं पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित रखती हैं। वाचिक और आदिवासी साहित्य द्वारा उस समाज की सामाजिक-राजनीतिक विचार-प्रक्रिया को प्रकट करता है, जहाँ वे बोली जाती हैं। इस संदर्भ में  वाचिक साहित्य हमेशा समकालीन और अद्यतन है। यह वाचिक परंपरा ही है, जो मानव-सभ्यता और मानव-सहस्तित्व संबंधी सूचनाओं को सुरक्षित रखने में हमारी मदद करती है।

 

भारत के सात भाषा-परिवारों की भाषाओं में उपलब्ध विपुल वाचिक साहित्य को ध्यान में रखते हुए यह वांछनीय है कि इस विशाल संपदा का दस्तावेज़ीकरण, विश्लेषण, डिजिटलीकरण और अभिलेखीकरण किया जाए। इस नवनिर्मित केंद्र केए उद्देश्य हमारी विरासत को व्यवस्थित और वैज्ञानिक तरीके से संरक्षित करना है, ताकि भारतीय जनता  अपने प्राचीन समाज को वैश्विक दृष्टिकोण से समझे और पारंपरिक ज्ञान से परिचित हो सके। अकादेमी का विचार इन भाषाओं में उपलब्ध मूल वाचिक पाठ को ऑडियो और ऑडियो-वीडियो में अभिलेखित करने का है तथा व्यापक वितरण के लिए अंग्रेज़ी अनुसूचित भाषाओं और अंग्रेज़ी में उनके अनुवाद के लिखित रूप में तैयार करना का है।

 

इस प्रयास द्वारा हमारे साहित्यिक इतिहास में बहुमूल्य सामग्री का समावेश होगा और हमारी साहित्यिक आलोचना भी समृद्ध होगी ।